खंडवा – मन में सच्ची लगन और कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो हर मुश्किल आसान हो जाता है कुछ ऐसा ही दिखा खंडवा जिले के आदिवासी परिवार की महिलाओं में जहां महिलाओं ने 20 से अधिक फ्लेवर की साबुन बनाकर ना केवल प्रदेश बल्कि देश सहित विदेशों में भी लोहा मनवा लिया है जी हां आदिवासी महिलाएं आम,पपीता, ककड़ी, तरबूज,टमाटर,काफी और दार्जलिंग की चायपत्ती फ्लेवर की साबुन बना रही हैं। शायद इसके पहले आपने न तो देखी होगी और ना ही इस तरह की साबुन के बारे में आपने कहीं सूना होगा . हम आपको दिखाते है .कुछ इसी तरह की बीस से अधिक फ्लेवर वाली ईको फ्रेंडली साबुन को आदिवासी महिलाएं तैयार कर रही है। जिनके बनाए एक साबुन की कीमत 250-350 रुपए तक है .
बता दें कि सफलता की यह कहानी है पंधाना विधानसभा क्षेत्र के ठेठ आदिवासी गांव उदयपुर की . जहां रहने वाली महिला रेखाबाई बराडे, ताराबाई भास्कले और काली बाई कैलाश ने गाँव के एक छोटे से कमरे में 3 साल पहले इस काम की शुरुआत की।दिनभर खेतों में सोयाबीन काटतीं और रात में बकरी के दूध और अन्य जड़ी-बूटियों से साबुन बनाने का प्रशिक्षण लेतीं। कई बार साबुन बनाने की कोशिश की, लेकिन सफलता कोसों दूर थी। ऊपर से अपनों की बातें सुनना सो अलग, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और एक साल बाद साबुन बनाने में सफलता पा ही ली।
जिन्होंने साबुन बनाने का प्रशिक्षण लेकर बकरी के दूध और आयुर्वेदिक वस्तुओं से साबुन बनाने की योजना पर काम शुरू किया। लेकिन सफलता नहीं मिली। इसके बाद कई बार प्रोडक्ट फेल हुए और इसी ने सफलता की नींव रखी। संघर्ष के दिनों को याद करते हुए रेखाबाई बताती है कि शुरुआत में सभी ने हंसी उड़ाई। घर के लोगों ने भी साथ नहीं दिया। इसलिए हम तीनों महिलाएं दिन में खेतों में सोयाबीन काटती और रात में साबुन बनाना सीखती थीं। काम चल निकला। आज इनके बनाए साबुन देश के मेट्रो सिटी में सप्लाई हो रहे हैं। अमेरिका से भी साबुन का ऑर्डर आया। इनके बनाए एक साबुन की कीमत 250 रुपए से लेकर 350 रुपए तक है।
भावती बताती है की ईको फ्रेंडली साबुन में सुगंधित तेल और फ्लेवर के लिए आम,तरबूज आदि चीजें मिलाई जाती हैं। इसलिए थोड़ा महंगा है। ईको फ्रेंडली साबुन की पैकिंग भी जूट की थैलियों में की जाती है। पैकिंग के वक्त घास में इसके डिब्बों को रखा जाता है। इसे वे ऑनलाइन वेबसाइट के माध्यम से बेचती है . हाल ही में अमेरिका से ऑर्डर आया है, एक्सपोर्ट के नियम पता कर इन्हें विदेश भी भेजेंगे। आर्थिक स्थिति भी सुधर गई। अब गांव की अन्य महिलाओं को भी इससे जोड़ना है, लेकिन हमारे पास पर्याप्त संसाधन और जगह की कमी है। फिलहाल एक दिन में 33 साबुन बना लेते हैं, लेकिन रखने के लिए जगह नहीं है, इसलिए बनाने का काम रुका है। अभी पैकिंग की जा रही है।