पुलिस आरोपी को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करती है , मजिस्ट्रेट उसे न्यायिक अभिरक्षा में लेता है और वारंट द्वारा जेल भेज देता है |पुलिस अन्वेषण के प्रयोजन हेतु आरोपी को रिमांड पर लेने के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करती है. आवेदन पर सुनवाई के पश्चात यदि पर्याप्त आधार है ,तो मजिस्ट्रेट पुलिस अभिरक्षा में कुछ दिन के लिए आरोपी को दे देता है, लेकिन यह निश्चित नहीं है ।
अभियुक्त की प्रथम पेशी से 15 दिन की अवधि में ही पुलिस रिमांड लिया जाता है। पहली पेशी से 15 दिन की अवधि न्यायिक अभिरक्षा एवं पुलिस रिमांड दोनों होता है।पुलिस ऐसे आरोपी को जो न्यायिक अभिरक्षा में है अपनी अभिरक्षा में लेती है उसे पुलिस अभिरक्षा का रिमांड कहते हैं ।रिमांड दो प्रकार का होता है पुलिस अभिरक्षा का रिमांड एवं न्यायिक अभिरक्षा का रिमांड।
न्यायिक अभिरक्षा का रिमांड 15 दिन की अवधि के लिए होता है पुलिस अन्वेषण मृत्युदंड, आजीवन कारावास ,अथवा 10 वर्ष तक, अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध से संबंधित है ,वहां न्यायिक अभिरक्षा 90 दिन से अधिक की अवधि के लिए नहीं हो सकती है यदि पुलिस अन्वेषण 10 वर्ष से कम दंडनीय अपराध से संबंधित है वहां न्यायिक अभिरक्षा की अवधि 60 दिन से अधिक नहीं होगी । यदि उपरोक्त दंड मे अपराधों का अन्वेषण 60 या 90 दिनों में पूरा नहीं होता है वहां अभियुक्त को जमानत पर छूटने का अधिकार है। यदि किसी कारण बस मजिस्ट्रेट आरोप पत्र को 60 या 90 दिनों में पूरा नहीं होता है वहां आरोपी को जमानत पर छूटने का अधिकार है।
यदि किसी तकनीकी त्रुटि के कारण मजिस्ट्रेट चार्जशीट को वापस कर देता है वहां आरोपी को जमानत का अधिकार है ।इसे ही चूक जमानत अथवा डिफॉल्ट बेल कहते हैं। यदि मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं है तब कार्यपालक मजिस्ट्रेट जिसको न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट की शक्तियां प्रदान की गई हैं आरोपी व्यक्ति को न्यायिक अभिरक्षा में 7 दिन से अनधिक अवधि के लिए भेज सकता है।
आरोप पत्र दाखिल होने के पश्चात आरोपी को धारा 309 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत न्यायिक अभिरक्षा में रखा जाता है । न्यायिक अभिरक्षा अर्थात ज्यूडिशियल रिमांड की कोई अधिकतम अवधि विहित नहीं है परंतु जिस अपराध के आरोप में वह अभिरक्षा में है उसके लिए नियत कारावास की अवधि तक ही न्यायिक अभिरक्षा में रखा जा सकता है ।इस प्रकार धारा 167 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत रिमांड अन्वेषण के दौरान दिया जाता है एवं धारा 309 के अंतर्गत रिमांड अपराध का संज्ञान कर लेने के बाद दिया जाता है । समन मामले में आरोपी की गिरफ्तारी से 6 माह के अंदर अन्वेषण समाप्त न होने पर मजिस्ट्रेट अन्वेषण रोकने का आदेश दे सकता है।