Kahani Karn Ki: महाभारत में कर्ण को सभी जानते है. कर्ण महाभारत के वीर योद्धाओं में से एक हैं। जिनकी छवि वर्तमान में एक शूरवीर और दानी के रूप में प्रतिस्थापित है। विभिन्न मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म “कुंती” (श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव की बहन और भगवान कृष्ण की बुआ) के घर एक वरदान के रूप में हुआ था। एक दिन दुर्वासा ऋषि चहल-पहल करते हुए, कुंती के महल में आए। उस समय कुंती अविवाहित थी, तब कुंती ने पूरे एक वर्ष तक दुर्वासा ऋषि की सेवा की थी.
Kahani Karn Ki: सेवाभाव के दौरान दुर्वासा ऋषि ने कुंती के भविष्य को अंतर्मन से देखा और कुंती से कहने लगे “तुम्हे राजा पाण्डु से कोई संतान प्राप्त नहीं होगी, इसके लिए तुम्हे मैं एक वरदान देता हूँ कि तुम किसी भी देवता का स्मरण कर उससे संतान प्राप्त कर सकती हो।” इतने कहने के बाद, दुर्वासा ऋषि वहां से चले गए, तभी उत्सुकतापूर्वक कुंती ने सूर्य देव का ध्यान लगाना शुरू किया। वह प्रतिदिन सूर्यदेव की पूजा अर्चना करने लगी, उनके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर सूर्य देव प्रकट हुए और उन्होंने कुंती को एक पुत्र का वरदान दिया। जिसके कुछ समय बाद कुंती ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसमें सूर्य का तेज झलकता था और यही-नहीं जन्म से ही कर्ण के शरीर पर कवच और कुण्डल थे।
Kahani Karn Ki: काव्य
कहानी कर्ण की
वीरों में वो वीर था ,
वो वचनों का शौकीन था।
नाम उसका कर्ण ,
सूर्य कुंती का वो वंश था ,
क्षत्रिय होके भी वो सूत था
योद्धा होके ही अछूत था ,
जो दे दे जान अपनी दान में ,
ऐसा वो राधे पुत्र था ।
परंतु बताया खुद को ब्राह्मण
और
धनुर्विद्या सीखी उसने धोखे से ,
फिर पाया उसने श्राप था ,
की जब आएगा समय विनाश का ,
भूल जायेगा वो उपयोग ब्रह्मास्त्र का।
हुई उससे गलती ,
और हत्या की उसने गऊ की अनजाने में ,
एकलौता सहारा जो एक ब्राह्मण का,
वो ब्राह्मण उसको ऐसे कैसे जाने दे ,
निकले मुख से कटु वचन,
कर्ण के जीवन पे बढ़ा वजन ,
की आएगी उसकी भी मृत्यु ऐसे ही ,
ध्यान हटेगा तेरा शत्रु से , और तुझपे वार होगा ,
न लड़ पाएगा न बच पाएगा ऐसे ही लाचार होगा ।
फिरभी लोग मुझसे पूछते ,
की वीरों की सूची में , कर्ण क्यों गुमनाम था ,
जिसने अधर्म और धर्म में अधर्म चुना ,
बोलो वो कैसे महान था?
क्यों न रोका अपने मित्र को,
जब गलत रास्ते पे था वो जा रहा ,
क्यों न छोड़ा उसका साथ ,
और स्वयं अधर्म को अपना रहा ।
क्या था नही अधर्म वो ,
जब कुलवधु को होेते हुए देखा उसने नग्न था ,
न गया सभा से बाहर ,ना रोका अपने मित्र को ,
क्युकी लज्जा हरने में द्रौपदी की ,
आखिर वो भी तो मग्न था ।
सबसे श्रेष्ठ था वो योद्धा,
स्वयं श्याम ने था अपनाया ,
सामने खड़े गोविंद थे ,
फिर भी न वचन उसका डगमगाया।
किस्मत में खेला खेल उसके साथ ,
वो तो खुद अपने वंश से अंजान था ,
वचन और दोस्ती निभायी,
किया पूरा अपना कर्म था ,
नियति कठोर उसपे ,
उसका मित्र ही अधर्म था ।
नियति कठोर उसपे ,
उसका मित्र ही अधर्म था ।
कृतिका मिश्रा – इन्दौर
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