सिंगरौली : आम आदमी पार्टी की महापौर रानी अग्रवाल महापौर बनी तो महिला सशक्तिकरण के लिए एक मिसाल के तौर पर उभरी। लेकिन अपने वादे पूरे नहीं करने पर जनता ही सशक्त होकर जवाब मांग रही है। महापौर ने चुनाव के समय लड्डू और झाड़ूं बांटकर नगर की विकास के 25 वादे किए थे पर पूरा एक भी नहीं किया। एक दो काम हुए भी तो वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयें।
बता दें कि मातृशक्ति महापौर ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि उनका कार्यकाल जनता को “दिल्ली मॉडल” जैसा विकास देगा। लेकिन हकीकत में हुआ कुछ और। जिस “दिल्ली मॉडल” की झलक दिखाने का वादा किया गया था, वही अब केजरीवाल के तर्ज पर काम करने का प्रतीक बन गया है। वादों की राजनीति, और ज़मीन पर काम का अभाव। नगर निगम चुनाव में बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद, शहर की सड़कों पर गड्ढे जस के तस हैं, नालों और शहर की सफाई केवल कागज़ों तक सीमित है। महिलाओं और छात्र-छात्राओं के लिए निशुल्क बस सेवा और हर घर को प्रतिमाह 20 हजार लीटर पानी देने के नाम पर न तो कोई ठोस योजना बनी, न कोई नई सुविधा शुरू हुई। जनता का कहना है कि महापौर ने “जनता की महापौर” बनने का दावा तो किया, लेकिन उनकी प्राथमिकताएं आम लोगों से ज़्यादा पार्टी की राजनीति तक सीमित रह गईं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि महापौर का कामकाज पूरी तरह केजरीवाल स्टाइल में दिखाई दे रहा है। प्रेस कॉन्फ्रेंस, बड़े बयान, बारिश के दिनों में पानी भरा तो वहां पहुंचकर फोटो खिंचवाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करना, ताकि जनता को लगेगी महापौर विकास में लगी है जबकि धरातल पर कोई विकास नहीं। जनता को न नई योजनाएँ दिखीं, न विकास के ठोस कदम। वह अक्सर विकास नहीं होने के सवाल पर भाजपा पर काम नहीं करने देने का आरोप लगाकर खुद को पाक-साफ बताती हैं।
जनता आप की नहीं बल्कि खुद की सुनने वाली चाहते हैं सरकार
जनता अब खुलकर सवाल पूछ रही है कहां गया वह बदलाव जिसका वादा करके महापौर बनी है ? सारे वादे सिर्फ चुनावी स्टंट था, धरातल पर शहर गंदगी और बारूद के ढेर पर बसा हुआ है। प्रतिमाह करोड़ों रुपए खर्च कर शहर से न तो गंदगी साफ हुई और न ही बारूद फैक्ट्री को यहां से हटाने के लिए कोई प्रयास किया। अब जनता में यह चर्चा ज़ोर पकड़ रही है कि अगर इसी तरह हालात रहे, तो अगले चुनाव में जनता “आप” की नहीं, बल्कि “खुद” की सुनने वाली सरकार चाहती है।
वादों से पेट नहीं भरता, अब काम चाहिए
स्थानीय व्यापारियों का कहना है, “हमने बदलाव की उम्मीद में वोट दिया था, लेकिन महापौर ने वही पुराना खेल खेला — वादे करो, भूल जाओ।” वहीं महिलाओं ने भी निराशा जताते हुए कहा कि “महिला नेतृत्व से उम्मीद थी कि वो हमारी आवाज़ बनेंगी, लेकिन वो भी पार्टी लाइन से आगे नहीं बढ़ीं।”महिला महापौर के लिए यह समय आत्ममंथन का है — क्योंकि जनता अब “केजरीवाल के तर्ज” पर काम नहीं, बल्कि अपने शहर में विकास का तर्ज चाहती है। क्योंकि वादों से पेट नहीं भरता अब जनता को कम चाहिए।
